ठाकुर जी और मैं
ठाकुर जी एक कटोरे में मिट्टी लेकर उससे खेल रहे थे।
मैंने पूछा :- गोपाल जी ये क्या कर रहे हो ?
ठाकुर जी कहने लगे :- मूर्ति बना रहा हूँ।
मैंने पूछा :- किसकी ?
उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा। और कहने लगे :- एक अपनी और एक तुम्हारी।
मैं भी देखने के उद्देश्य से उनके पास बैठ गया।
अब ठाकुर जी ने कुछ ही पल में दोनों मूर्तियाँ तैयार कर दी।और मुझसे पूछने लगे :- बताओं कैसी बनी है ?
मूर्ति इतनी सुंदर मानों अभी बोल पड़ेंगी।परन्तु मैंने कहा:- मजा नहीं आया।इन्हें तोड़ कर दुबारा बनाओ।
अब ठाकुर जी अचरज भरी निगाहों से मेरी ओर देखने लगें।और सोचने लगे कि मेरे बनाए में इसे दोष दिखाई दे रहा हैं।
परन्तु उन्होंने कुछ नहीं कहा।और दोबारा उन मूर्तियों को तोड़कर उस कटोरे में डाल दिया।और उस मिट्टी को गुथने लगें।
अब उन्होंने फिर से मूर्तियाँ बनानी शुरू की।और हुबहू पहले जैसी मूर्तियाँ तैयार की।
अबकी बार प्रश्न चिन्ह वाली दृष्टि से मेरी ओर देखा ?
मैंने कहा:- ये वाली पहले वाली से अधिक सुंदर है।
ठाकुर जी बोले :- तुम्हें कोई कला की समझ वमझ हैं भी के नहीं।इसमें और पहले वाली में मैंने रति भर भी फर्क नहीं किया।फिर ये पहले वाली से सुंदर कैसे हैं ?
मैंने कहा :- "प्यारे" यहाँ मूर्ति की सुंदरता को कौन देख रहा है।मुझे तो केवल तेरे हाथों से खुद को तुझमें मिलवाना था।
ठाकुर जी :- अर्थात ?????
अब मैं ठाकुर जी को समझा रहा था :- देखों प्यारे।तुमनें पहले दो मूर्ति बनाई।एक अपनी और एक हमारी।
ठाकुर जी :- हाँ बनाई ।
मैं :- फिर तुमनें इन्हें तोड़कर वापस कटोरे में डालकर गुथ दिया।
ठाकुर जी :- हाँ तो ?
मैं :- बस इस गुथने की परिक्रिया मे ही मेरा मनोरथ पूरा हो गया। मैं और तुम मिलकर एक हो गए।
ठाकुर जी बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे थे।
और मैं कह रहा था :- "प्यारे" हर किसी का अपना-अपना नजरिया हैं।
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